गांधी: मोहनदास से महात्मा बनने का सफर

गांधी: मोहनदास से महात्मा बनने का सफर

 

2 अक्तूबर को महात्मा गांधी की जयंती है। आज गांधी होते तो 153 वर्ष के हो गए होते। इतने लंबे वक्त तक जिंदा रहना तो बेहद कठिन है लेकिन जन के मन में गांधी आज भी जिंदा हैं। 30 जनवरी 1948 को शारीरिक प्रस्थान से गांधी का अंत नहीं हुआ। शारीरिक प्रस्थान से किसी का अंत होता भी नहीं है। अपनी मौत के बाद भी सभी जीते हैं, हाँ कोई कम और कोई ज्यादा। गांधी शारीरिक रूप से 125 वर्ष तक जीने की इच्छा रखते थे लेकिन तत्कालीन हिंदुस्तान की हालत को देखते हुए 79 वर्ष की उम्र में उन्होंने कहा कि “मैं अब जिंदा रह कर क्या करूँगा, अब मैं और नहीं जीना चाहता।” गांधी हमारे बीच नहीं रहे लेकिन उनके विचारों का प्रसार लगातार होता रहा और होता रहेगा। ‛हरिजन’ में उन्होंने लिखा भी था कि, “उम्र से बूढ़ा होने पर भी मुझे नहीं लगता कि मेरा आंतरिक विकास रुक गया है या काया के विसर्जन के बाद रुक जाएगा।” आज गांधी संपूर्ण विश्व में एक गतिमान विचार के रूप में मौजूद हैं। निर्मल वर्मा ने गांधी के बारे में ठीक ही कहा है, “गांधी दुनिया में सबसे कम जगह घेरने वाले व्यक्ति थे। उन्होंने जगह घेरी तो दिल और दिमाग में।”

2 अक्तूबर को पूरी दुनिया में “अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस” के रूप में मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 15 जून, 2007 को एक प्रस्ताव पारित कर दुनिया से यह आग्रह किया कि वे शांति और अहिंसा के विचार पर अमल करें और महात्मा गांधी के जन्मदिवस को “अंतरराष्ट्रीय अहिंसा दिवस” के रूप में मनाएँ। इस दिवस का उद्देश्य है, सम्पूर्ण विश्व में शांति स्थापित करना और अहिंसा का मार्ग अपनाना। इसके अतिरिक्त शांति, सहिष्णुता, समझ और अहिंसा की संस्कृति को बढ़ावा देना। संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव के अनुसार यह दिन “शिक्षा और जन जागरूकता सहित अहिंसा के संदेश को प्रसारित करने” का एक अवसर है।

व्यक्तित्व और कृतित्व-

गांधी के मोहनदास से महात्मा बनने का सफर इतना आसान नहीं है। इस सफर को मात्र कुछ शब्दों में समेटा भी नहीं जा सकता। आइंस्टाइन का यह कथन गांधी की महत्ता बताने के लिये पर्याप्त है कि “आने वाली पीढ़ियाँ विश्वास नहीं करेंगी कि इस धरती पर गांधी जैसा कोई हाँड-माँस का शरीर रहा होगा।”

रामचंद्र गुहा ठीक कहते हैं कि, “गांधी ने जो दो दशक दक्षिण अफ्रीका में बिताए वे गांधी को महात्मा बनने की राह पर ले गए।” गांधी के व्यक्तित्व को उनके पारिवारिक संस्कारों ने जरूर गढ़ा था लेकिन गांधी के मुखर व्यक्तित्व की निर्मिती में दक्षिण अफ्रीका प्रवास का महत्वपूर्ण योगदान है। दक्षिण अफ्रीका में प्रवास के 21 वर्षों में गांधी का जीवन और विचार कई महत्त्वपूर्ण बदलावों से गुजरे।

दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान गांधी को कई प्रकार के अपमानजनक अनुभव मिले। उन्होंने इस अपमान के विरुद्ध संघर्ष की राह का चुनाव किया। दक्षिण अफ्रीका में ही उन्होंने सार्वजनिक जीवन में पदार्पण किया और लगातार विस्तार करते गए। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका तथा भारत में संगठित प्रयास के लिये ‘नटाल इंडियन कांग्रेस’ (1894), ट्रांसवाल ब्रिटिश इंडियन एसोसिएशन(1902), हरिजन सेवक संघ (1933) जैसे संगठनों का निर्माण किया।

अपने विचारों के प्रसार के लिये उन्होंने इंडियन ओपिनियन, ग्रीन पम्फलेट, नवजीवन, यंग इंडिया, हरिजन जैसे समाचार पत्रों का प्रकाशन किया। अपने विचारों को मूर्त रूप देने के लिये फिनिक्स आश्रम, टॉलस्टॉय फॉर्म, साबरमती तथा सेवाग्राम जैसे महत्वपूर्ण आश्रमों की स्थापना भी की। जो कि स्वराज्य प्राप्ति में सहायक साबित हुए।

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन एवं गांधी-

दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटते समय गांधी के पास एक सुस्पष्ट कार्यपद्धती और भारत के पुनरुत्थान के लिये एक सुविचारित कार्यक्रम था। चंपारण आंदोलन(1917), खेड़ा सत्याग्रह(1918), अहमदाबाद मिल हड़ताल(1918) में सफल नेतृत्व की बदौलत गांधी भारत आगमन के चार सालों के अंदर ही प्रभावशाली राष्ट्रीय नेता के तौर पर उभरे। उनकी नैतिकतावादी भाषा, जटिल व्यक्तित्व, स्पष्ट दृष्टि, सांस्कृतिक प्रतीकों का इस्तेमाल, आचरण और असाधारण आत्मविश्वास ने देशवासियों को प्रभावित किया। असहयोग आंदोलन(1920) सविनय अवज्ञा आंदोलन(1930) और भारत छोड़ो आंदोलन(1942) गांधी के प्रयोगों के माध्यम से भारतीय जनमानस का ब्रिटिश उपनिवेशवादी सत्ता के प्रति आक्रोश को अभिव्यक्त करने का माध्यम बना। जिससे स्वाधीनता की राह आसान हुई। गांधी की अनुपस्थिति में हम भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की कल्पना नहीं कर सकते हैं।

चिंतन-

गांधी को समझने हेतु उनके चिंतन को समझना बेहद जरूरी है। उनका चिंतन बहुआयामी है। इसका मुख्य कारण गांधी बहुत सारे विचारों से प्रभावित थे और अनुभव के आधार पर उनमें स्वीकारोक्ति का भी भाव था। गांधी हिंदू धर्म के विभिन्न ग्रंथों मुख्य रूप से गीता और रामायण से प्रभावित थे। अहिंसा और शांति का विचार उन्होंने बौद्ध धर्म से लिया था। अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का विचार उन्होंने जैन धर्म से स्वीकार किया था। इस्लाम की बंधुता और ईसाईयत का दया भाव उनको प्रभावित करता था। इसके अतिरिक्त गांधी टॉलस्टॉय, थोरो और रस्किन के विचारों से भी प्रभावित थे।

गांधी ने अपने मत के पक्ष में सदैव वाद-विवाद और संवाद किया। स्वाधीनता संग्राम के दौरान गांधी ने जितने भी कदम उठाए, उनका यही उद्देश्य था कि अपने विचारों को जमीन पर उतारा जा सके। उनके लिये वे विचार निरर्थक थे जिन्हें जिया न जा सके। जहाँ ज़रूरी लगा गांधी अपना मत परिवर्तन करने से हिचके भी नहीं। गांधी सदैव सिद्धांत निर्माण के बजाय कर्म में विश्वास करते रहे।

गांधी के जीवन और चिंतन का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष साध्य और साधन की पवित्रता रही। गांधी यहीं पर पश्चिम के मैकियावेली जैसे विचारकों से अलग दिखते हैं। गांधी के भीतर आजीवन एक नैतिक संघर्ष चलता रहा। इसे वे आत्मपरीक्षण कहते थे। गांधी एक-एक भाव की जाँच करते थे। जो ग्रहण करने योग्य होता था उसके अनुरूप आचरण करते थे। गांधी धर्म को भी नैतिक अनुशासन की व्यवस्था मानते थे। गांधी के संपूर्ण चिंतन का अवलोकन करने के पश्चात हम कह सकते हैं कि वह एक ‛नैतिक आदर्शवादी’ हैं। उनके राजनीतिक विचारों के आलोक में उन्हें ‛दार्शनिक अराजकतावादी’ भी कहा जाता है।

गांधी के महत्त्वपूर्ण विचारों को निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत समझा जा सकता है-

सत्य और अहिंसा-

गांधी के लिये अहिंसा साधन है और सत्य साध्य है। उनका मानना था कि उन्होंने सत्य की अपनी खोज में अहिंसा को प्राप्त किया है। वे कहते हैं, “मेरे लिये अहिंसा का स्थान स्वराज से पहले है।” गांधी के लिये सत्य कोई अंतिम दावा नहीं था। सत्य उनके लिये प्रयोग का विषय था। उनका मानना था सत्य अपने-अपने अनुभव और विवेक की प्रयोगशाला में स्वयं को परखने की चीज है। वे कहते हैं, “मेरे निरंतर अनुभव ने यह विश्वास दिला दिया है कि सत्य से अलग कोई ईश्वर नहीं है।” इसलिये उन्होंने अपनी आत्मकथा का नाम भी “सत्य के साथ मेरे प्रयोग” रखा।

सत्याग्रह-

गांधी के लिये सत्याग्रह, स्वराज प्राप्ति का साधन है। जिसके लिये वे असहयोग और सविनय अवज्ञा जैसी नैतिक दबाव वाली तकनीकों का प्रयोग करते हैं। वे सत्य पर अडिग रहते हुए हृदय परिवर्तन पर बल देते हैं। हम कह सकते हैं कि सत्याग्रह एक प्रकार से सामाजिक क्रांति का गांधीवादी तरीका है। के. एल. श्रीधरानी ने इसे ‛हिंसाविहीन युद्ध’ भी कहा है।

स्वराज-

गांधी के लिये स्वराज प्राप्ति का अर्थ सिर्फ राजनीति स्वतंत्रता प्राप्त करना नहीं है बल्कि यह सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और नैतिक स्वाधीनता है। व्यक्ति के लिये वह इसे स्वनियंत्रण से जोड़ते हैं। गांधी कहते हैं- “मैं ऐसे भारत के निर्माण का प्रयत्न करूँगा जिसमें निर्धन से निर्धन मनुष्य भी यह अनुभव करेगा कि यह मेरा अपना देश है और इसके निर्माण में मेरा पूरा अपना हाथ है।”

स्वदेशी-

गांधी औद्योगीकरण का विरोध करते हुए आत्मनिर्भरता हेतु स्वदेशी पर बल देते हैं। औद्योगिक सभ्यता के इस दौर में गांधी का स्वदेशी से संबंधित विचार देश के आर्थिक निर्माण का मार्गदर्शक सिद्धांत है। उन्होंने भारतीय समाज की संस्कृति का स्मरण कराने वाले प्रतीकों का समूह बनाया। जिसमें चरखा, खादी, गाय एवं गांधी टोपी शामिल था।

सर्वोदय-

सर्वोदय का अर्थ है सबका उदय। यह एक प्रकार से गांधीवादी समाजवाद है। सर्वोदय ऊपर से नीचे नहीं नीचे से ऊपर जाने वाला रास्ता है। समाज की बुनियाद इकाइयों और संरचनाओं से इसकी शुरुआत होती है। गांधी ने सभी वर्गों मुख्य रूप से अछूतों, महिलाओं, कामगारों एवं किसानों के उत्थान के लिये रचनात्मक कार्यक्रमों का भी संचालन किया। सर्वोदय की अवधारणा से ही भूदान आंदोलन का जन्म हुआ।

आधुनिकता सभ्यता और गांधी-

महात्मा गांधी राष्ट्र उत्थान के लिये सभी प्रकार के विचारों का स्वागत करते थे लेकिन किसी भी देश की उन्नति के लिये उस देश की आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था को सिर्फ पश्चिमी सभ्यता में ढालने के पक्षधर नहीं थे। उनका दृढ़ विश्वास था कि पश्चिमी सभ्यता मनुष्य को उपभोक्तावाद का रास्ता दिखा कर नैतिक पतन की ओर ले जाती है; नैतिक उत्थान का रास्ता आत्मसंयम और त्याग की भावना की मांग करता है। गांधी जी ने पश्चिमी सभ्यता और आधुनिक सभ्यता को समवर्ती मानते हुए उसकी विस्तृत समीक्षा की। वर्ष 1927 में ‘यंग इंडिया’ के अंतर्गत उन्होंने लिखा कि, “ मैं यह नहीं मानता कि इच्छाओं को बढ़ाने, उनकी पूर्ति के साधन जुटाने से संसार अपने लक्ष्य की ओर एक कदम भी बढ़ पाएगा। आज की दुनिया में दूरी और समय के अंतराल को कम करने, भौतिक इच्छाओं को बढ़ाने और उनकी तृप्ति के लिये धरती का कोना-कोना छान मारने की अंधी दौड़ चल रही है, वह मुझे बिल्कुल पसंद नहीं। यदि आधुनिक सभ्यता के यही सब लक्षण हैं और मुझे इसके यही लक्षण समझ आते हैं तो मैं इसे शैतानी सभ्यता कहता हूँ।”

गांधी जी ने ‘हिंद स्वराज’ के अंतर्गत लिखा है कि, “आधुनिक सभ्यता दिखावटी तौर पर समानता के सिद्धांत को सम्मान देती है, परंतु यथार्थ के धरातल पर यह प्रजातिवाद को बढ़ावा देती है। इसमें अश्वेत जातियों को मानवीय गरिमा से वंचित रखा जाता है और उनका भरपूर शोषण किया जाता है। कहीं उन्हें दास बनाकर तो कहीं बंधुआ मजदूर बनाकर रखा जाता है।” गांधीजी के अनुसार, “आधुनिक सभ्यता के अंतर्गत चेतन की तुलना में जड़ को, प्राकृतिक जीवन की तुलना में यांत्रिक जीवन को और नैतिकता की तुलना में राजनीति और अर्थशास्त्र को ऊँचा स्थान दिया जाता है।”

गांधी की प्रासंगिकता-

गांधी बीसवीं सदी के सबसे सार्थक, सक्रिय और सार्वजनिक जीवन जीने वाले व्यक्तित्व रहे। आज 21वीं सदी के दो दशक बाद भी गांधी और उनके विचार संपूर्ण विश्व के लिये जरूरी प्रतीत होते हैं। वैश्वीकृत, समकालीन आधुनिक भौतिकतावादी समाज में जहाँ असंतोष ,अवसाद, असमानता व असंवेदनशीलता जैसी समस्याएँ हावी हैं वहाँ विकास से जुड़ी समस्याओं के संदर्भ में गांधीवादी चिंतन ना सिर्फ प्रासंगिक है बल्कि इसमें विशेष अभिरुचि भी ली जा रही है। गांधी के विचारों को आधार बनाकर कई देशों ने स्वाधीनता हासिल की।

चूँकि गांधी सदैव विकेंद्रीकरण के समर्थक रहे इसलिये गांधी का चिंतन वर्तमान लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के लिये बेहद उपयोगी है। गांधी ने श्रम की गरिमा को मानव गरिमा से जोड़ा। पूंजीवाद और मानव मूल्यों के क्षरण के इस दौर में मानव गरिमा को बचाए रखने हेतु गांधी का चिंतन बेहद जरूरी है। विभिन्न प्रकार के पर्यावरणीय संकट से जूझ रहे संपूर्ण विश्व के समक्ष गांधी का चिंतन ना सिर्फ धारणीय विकास के अनुकूल है बल्कि सामाजिक समावेशन को बढ़ाने वाला है।

निष्कर्ष-

आज गांधी की बहुत मूर्तियाँ बनवाई जा चुकी हैं लेकिन असल प्रश्न यह है कि विचार और आचरण रूप में वह हमारी चेतना और व्यवहार में हैं और रहेंगे कि नहीं?

गांधी जयंती के अवसर पर आज हमें गांधी को महज रस्म अदायगी तक याद करने से बचना होगा। गांधी का व्यक्तित्व और चिंतन न सिर्फ भारत बल्कि संपूर्ण विश्व के लिये एक धरोहर है वर्तमान में इसे संरक्षित और संवर्द्धित करने की आवश्यकता है।